नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाए, अलविदा २००८ और 2009 के आगमन की हार्दिक शुभकामनायें स्वीकार करे, Welcome to the Cg Citizen Journalism The All Cg Citizen is Journalist"!
मिडिया की आजादी खतरे में बिलासपुर छत्तीसगढ़ पत्रकार संघ के महासचिव राज गोस्वामी (दैनिक जागरण) की अगुवाई में 15 जनवरी को काला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया है। संघ के महासचिव राज गोस्वामी ने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा मीडिया को गुलाम बनाने की मंशा के खिलाफ बिलासपुर के पत्रकारो ने भी 15 जनवरी को काला दिवस मनाते हुए विरोध दर्ज कराने का फैसला किया है। 15 जनवरी को प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन स्थानीय प्रशासन को सौंपा जाएगा। इस मौके पर हुई बैठक में उमेश कुमर सोनी (राष्टीय न्यूज सर्विस), अमित मिश्रा दैनिक इस्पात टाइम्स, शशांक दुबे चैनल वन और अन्य लोग मौजूद थे। यह लड़ाई सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही नहीं है। इमरजेंसी सिचुवेशन और नेशनल क्राइसिस जैसे धीर-गंभीर शब्दों की आड़ में आज टीवी पर जनांदोलनों को दिखाने से रोके जाने की तैयारी है तो कल इसे प्रिंट मीडिया और वेब माध्यमों पर भी लागू किया जा सकता है। सरकार ने टीवी को पहले इसलिए निशाना बनाया है क्योंकि कुछ गल्तियों के चलते टीवी वालों के प्रति जनता में भी गुस्सा है। इसी गुस्से का लाभ सरकार उठा रही है। अब जबकि टीवी के लोग खुद एक संस्था का गठन कर अपने लिए गाइडलाइन तैयार करा चुके हैं और उसे फालो करने का वादा कर चुके हैं, ऐसे में सरकार का काला कानून लाना उसकी नीयत को दर्शाता है। नेताओं की चले तो देश में मीडिया कभी आजाद तरीके से काम न कर सके क्योंकि ये मीडिया और न्यायपालिका ही हैं जो अपनी आजादी का उपयोग करते हुए बड़े-बड़े शूरमाओं की असल पोल-पट्टी सामने लाने में सक्षम होते रहे हैं और जनता के गुस्से को सत्ताधारियों तक पहुंचाने का माध्यम बनते रहे हैं। सरकार में बैठे लोगों के मन में टीवी वालों के प्रति गुस्सा इसलिए भी है क्योंकि मुंबई आतंकी हमलों के बहाने न्यूज चैनलों ने देश की लचर सुरक्षा व्यवस्था पर तीखे अंदाज में सवाल उठाए। सरकार और उसकी एजेंसियों के नकारेपन को पूरे देश के सामने उजागर किया। इसी 'गल्ती' की सजा मीडिया को देने पर आमादा है सरकार। कैबिनेट नोट बटने का मतलब होता है मंत्रिमंडल की अगली किसी भी बैठक में इस पर मुहर लगाकर कानून बना देना। मीडिया के लिए कानून संसद में बहस के जरिए बनाए जाने की बजाय चोर दरवाजे से कानून लाने की तैयारी है। इसी का नतीजा है कि देश की विपक्षी पार्टियों के नेताओं तक को इस बात की खबर न हो सकी है कि सरकार मीडिया के साथ क्या बर्ताव करने जा रही है। अब जबिक मीडिया के लोग सभी पोलिटिकल पार्टियों के नेताओं को सरकार की अलोकतांत्रिक मंशा के बारे में बता रहे हैं तो हर नेता का यही कहना होता है कि उन्हें तो इस बारे में खबर तक नहीं है। दोस्तों, मीडिया में होने के नाते हम-आप पर जो दायित्व है, उसका निर्वाह 15 जनवरी के दिन हम-आप जरूर करेंगे, यह उम्मीद चौथे खंभे की आजादी में विश्वास रखने वाले हर शख्स को है। न्यूज चैनलों के संपादकों ने काले कानून के प्रति सभी राजनीतिक पार्टियों को जागरूक करने और इस कानून को न लागू होने देने के मकसद से कई बड़े नेताओं से मुलाकात की। इस मुलाकात अभियान के तहत अब तक भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी प्रकाश करात, सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, सपा नेता अमर सिंह, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान से मिल चुके हैं। आज शाम को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात तय है। इस बीच, देश भर के मीडियाकर्मियों ने 15 जनवरी को काला दिवस मनाने की तैयारी कर ली है। दिल्ली में जंतर-मंतर पर सैकड़ों की संख्या में मीडियाकर्मी दिन में 12 बजे उपस्थित होंगे और काला कानून बनाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों में बांटे गए कैबिनेट नोट की प्रतियां जलाएंगे।
मिडिया की आजादी खतरे में बिलासपुर छत्तीसगढ़ पत्रकार संघ के महासचिव राज गोस्वामी (दैनिक जागरण) की अगुवाई में 15 जनवरी को काला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया है। संघ के महासचिव राज गोस्वामी ने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा मीडिया को गुलाम बनाने की मंशा के खिलाफ बिलासपुर के पत्रकारो ने भी 15 जनवरी को काला दिवस मनाते हुए विरोध दर्ज कराने का फैसला किया है। 15 जनवरी को प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन स्थानीय प्रशासन को सौंपा जाएगा। इस मौके पर हुई बैठक में उमेश कुमर सोनी (राष्टीय न्यूज सर्विस), अमित मिश्रा दैनिक इस्पात टाइम्स, शशांक दुबे चैनल वन और अन्य लोग मौजूद थे। यह लड़ाई सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही नहीं है। इमरजेंसी सिचुवेशन और नेशनल क्राइसिस जैसे धीर-गंभीर शब्दों की आड़ में आज टीवी पर जनांदोलनों को दिखाने से रोके जाने की तैयारी है तो कल इसे प्रिंट मीडिया और वेब माध्यमों पर भी लागू किया जा सकता है। सरकार ने टीवी को पहले इसलिए निशाना बनाया है क्योंकि कुछ गल्तियों के चलते टीवी वालों के प्रति जनता में भी गुस्सा है। इसी गुस्से का लाभ सरकार उठा रही है। अब जबकि टीवी के लोग खुद एक संस्था का गठन कर अपने लिए गाइडलाइन तैयार करा चुके हैं और उसे फालो करने का वादा कर चुके हैं, ऐसे में सरकार का काला कानून लाना उसकी नीयत को दर्शाता है। नेताओं की चले तो देश में मीडिया कभी आजाद तरीके से काम न कर सके क्योंकि ये मीडिया और न्यायपालिका ही हैं जो अपनी आजादी का उपयोग करते हुए बड़े-बड़े शूरमाओं की असल पोल-पट्टी सामने लाने में सक्षम होते रहे हैं और जनता के गुस्से को सत्ताधारियों तक पहुंचाने का माध्यम बनते रहे हैं। सरकार में बैठे लोगों के मन में टीवी वालों के प्रति गुस्सा इसलिए भी है क्योंकि मुंबई आतंकी हमलों के बहाने न्यूज चैनलों ने देश की लचर सुरक्षा व्यवस्था पर तीखे अंदाज में सवाल उठाए। सरकार और उसकी एजेंसियों के नकारेपन को पूरे देश के सामने उजागर किया। इसी 'गल्ती' की सजा मीडिया को देने पर आमादा है सरकार। कैबिनेट नोट बटने का मतलब होता है मंत्रिमंडल की अगली किसी भी बैठक में इस पर मुहर लगाकर कानून बना देना। मीडिया के लिए कानून संसद में बहस के जरिए बनाए जाने की बजाय चोर दरवाजे से कानून लाने की तैयारी है। इसी का नतीजा है कि देश की विपक्षी पार्टियों के नेताओं तक को इस बात की खबर न हो सकी है कि सरकार मीडिया के साथ क्या बर्ताव करने जा रही है। अब जबिक मीडिया के लोग सभी पोलिटिकल पार्टियों के नेताओं को सरकार की अलोकतांत्रिक मंशा के बारे में बता रहे हैं तो हर नेता का यही कहना होता है कि उन्हें तो इस बारे में खबर तक नहीं है। दोस्तों, मीडिया में होने के नाते हम-आप पर जो दायित्व है, उसका निर्वाह 15 जनवरी के दिन हम-आप जरूर करेंगे, यह उम्मीद चौथे खंभे की आजादी में विश्वास रखने वाले हर शख्स को है। न्यूज चैनलों के संपादकों ने काले कानून के प्रति सभी राजनीतिक पार्टियों को जागरूक करने और इस कानून को न लागू होने देने के मकसद से कई बड़े नेताओं से मुलाकात की। इस मुलाकात अभियान के तहत अब तक भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी प्रकाश करात, सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, सपा नेता अमर सिंह, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान से मिल चुके हैं। आज शाम को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात तय है। इस बीच, देश भर के मीडियाकर्मियों ने 15 जनवरी को काला दिवस मनाने की तैयारी कर ली है। दिल्ली में जंतर-मंतर पर सैकड़ों की संख्या में मीडियाकर्मी दिन में 12 बजे उपस्थित होंगे और काला कानून बनाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों में बांटे गए कैबिनेट नोट की प्रतियां जलाएंगे।
पत्रकारिता और पत्रकार पत्रकारिता की ऊपर से दिखाई पड़ने वाली चमक-दमक के बीच अक्सर ये बात गुम सी हो जाती है कि कई लोगों के लिए पत्रकारिता एक जोखिम भरा पेशा भी होती है। ये वो लोग होते हैं जो किसी खबर के पीछे सरहदों के आरपार, और खबरों के बेहद करीब जाकर खड़े हो जाते हैं। मामला जंग का हो, आतंक का हो, किसी हादसे का हो, भूकंप का या सूनामी का हो, अक्सर अपनी सहूलियतों से बेपरवाह, अपने खतरों को पहचानते हुए भी कोई पत्रकार किसी मोर्चे पर जा पहुंचता है तो वो एक निहत्था सिपाही होता है जिसकी जान बड़ी आसानी से ली जा सकती है। हुकूमतें सबसे पहले उस पत्रकार को निशाना बनाती है जो इस सिलसिले की पहली कड़ी होता है- वो रिपोर्टर जो कहीं जाकर, किन्हीं अंधेरों में दाखिल होकर, सूचनाओं की सेंधमारी करता है और अगले दिन के अखबार के लिए एक जरूरी मसाला जुटाता है। लेकिन उसकी ताकत यही होती है कि वो मरते-मरते भी अपना पेशा नहीं भूलता। उसके हाथ से उसकी कलम, उसका कैमरा नहीं छूटता- सच को पकड़ने की उसकी जिद नहीं खत्म होती, भले इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े।
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आपका बहुत बहुत धन्यवादापका ब्लोग बहुत अच्छा लगा परिचय के लिये शुक्रिया
मिडिया की आजादी खतरे में
बिलासपुर छत्तीसगढ़ पत्रकार संघ के महासचिव राज गोस्वामी (दैनिक जागरण) की अगुवाई में 15 जनवरी को काला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया है। संघ के महासचिव राज गोस्वामी ने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा मीडिया को गुलाम बनाने की मंशा के खिलाफ बिलासपुर के पत्रकारो ने भी 15 जनवरी को काला दिवस मनाते हुए विरोध दर्ज कराने का फैसला किया है। 15 जनवरी को प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन स्थानीय प्रशासन को सौंपा जाएगा। इस मौके पर हुई बैठक में उमेश कुमर सोनी (राष्टीय न्यूज सर्विस), अमित मिश्रा दैनिक इस्पात टाइम्स, शशांक दुबे चैनल वन और अन्य लोग मौजूद थे। यह लड़ाई सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही नहीं है। इमरजेंसी सिचुवेशन और नेशनल क्राइसिस जैसे धीर-गंभीर शब्दों की आड़ में आज टीवी पर जनांदोलनों को दिखाने से रोके जाने की तैयारी है तो कल इसे प्रिंट मीडिया और वेब माध्यमों पर भी लागू किया जा सकता है। सरकार ने टीवी को पहले इसलिए निशाना बनाया है क्योंकि कुछ गल्तियों के चलते टीवी वालों के प्रति जनता में भी गुस्सा है। इसी गुस्से का लाभ सरकार उठा रही है। अब जबकि टीवी के लोग खुद एक संस्था का गठन कर अपने लिए गाइडलाइन तैयार करा चुके हैं और उसे फालो करने का वादा कर चुके हैं, ऐसे में सरकार का काला कानून लाना उसकी नीयत को दर्शाता है। नेताओं की चले तो देश में मीडिया कभी आजाद तरीके से काम न कर सके क्योंकि ये मीडिया और न्यायपालिका ही हैं जो अपनी आजादी का उपयोग करते हुए बड़े-बड़े शूरमाओं की असल पोल-पट्टी सामने लाने में सक्षम होते रहे हैं और जनता के गुस्से को सत्ताधारियों तक पहुंचाने का माध्यम बनते रहे हैं। सरकार में बैठे लोगों के मन में टीवी वालों के प्रति गुस्सा इसलिए भी है क्योंकि मुंबई आतंकी हमलों के बहाने न्यूज चैनलों ने देश की लचर सुरक्षा व्यवस्था पर तीखे अंदाज में सवाल उठाए। सरकार और उसकी एजेंसियों के नकारेपन को पूरे देश के सामने उजागर किया। इसी 'गल्ती' की सजा मीडिया को देने पर आमादा है सरकार। कैबिनेट नोट बटने का मतलब होता है मंत्रिमंडल की अगली किसी भी बैठक में इस पर मुहर लगाकर कानून बना देना। मीडिया के लिए कानून संसद में बहस के जरिए बनाए जाने की बजाय चोर दरवाजे से कानून लाने की तैयारी है। इसी का नतीजा है कि देश की विपक्षी पार्टियों के नेताओं तक को इस बात की खबर न हो सकी है कि सरकार मीडिया के साथ क्या बर्ताव करने जा रही है। अब जबिक मीडिया के लोग सभी पोलिटिकल पार्टियों के नेताओं को सरकार की अलोकतांत्रिक मंशा के बारे में बता रहे हैं तो हर नेता का यही कहना होता है कि उन्हें तो इस बारे में खबर तक नहीं है।
दोस्तों, मीडिया में होने के नाते हम-आप पर जो दायित्व है, उसका निर्वाह 15 जनवरी के दिन हम-आप जरूर करेंगे, यह उम्मीद चौथे खंभे की आजादी में विश्वास रखने वाले हर शख्स को है।
न्यूज चैनलों के संपादकों ने काले कानून के प्रति सभी राजनीतिक पार्टियों को जागरूक करने और इस कानून को न लागू होने देने के मकसद से कई बड़े नेताओं से मुलाकात की। इस मुलाकात अभियान के तहत अब तक भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी प्रकाश करात, सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, सपा नेता अमर सिंह, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान से मिल चुके हैं। आज शाम को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात तय है। इस बीच, देश भर के मीडियाकर्मियों ने 15 जनवरी को काला दिवस मनाने की तैयारी कर ली है। दिल्ली में जंतर-मंतर पर सैकड़ों की संख्या में मीडियाकर्मी दिन में 12 बजे उपस्थित होंगे और काला कानून बनाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों में बांटे गए कैबिनेट नोट की प्रतियां जलाएंगे।
मिडिया की आजादी खतरे में
बिलासपुर छत्तीसगढ़ पत्रकार संघ के महासचिव राज गोस्वामी (दैनिक जागरण) की अगुवाई में 15 जनवरी को काला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया है। संघ के महासचिव राज गोस्वामी ने बताया कि केन्द्र सरकार द्वारा मीडिया को गुलाम बनाने की मंशा के खिलाफ बिलासपुर के पत्रकारो ने भी 15 जनवरी को काला दिवस मनाते हुए विरोध दर्ज कराने का फैसला किया है। 15 जनवरी को प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन स्थानीय प्रशासन को सौंपा जाएगा। इस मौके पर हुई बैठक में उमेश कुमर सोनी (राष्टीय न्यूज सर्विस), अमित मिश्रा दैनिक इस्पात टाइम्स, शशांक दुबे चैनल वन और अन्य लोग मौजूद थे।
यह लड़ाई सिर्फ इलेक्ट्रानिक मीडिया की ही नहीं है। इमरजेंसी सिचुवेशन और नेशनल क्राइसिस जैसे धीर-गंभीर शब्दों की आड़ में आज टीवी पर जनांदोलनों को दिखाने से रोके जाने की तैयारी है तो कल इसे प्रिंट मीडिया और वेब माध्यमों पर भी लागू किया जा सकता है। सरकार ने टीवी को पहले इसलिए निशाना बनाया है क्योंकि कुछ गल्तियों के चलते टीवी वालों के प्रति जनता में भी गुस्सा है। इसी गुस्से का लाभ सरकार उठा रही है। अब जबकि टीवी के लोग खुद एक संस्था का गठन कर अपने लिए गाइडलाइन तैयार करा चुके हैं और उसे फालो करने का वादा कर चुके हैं, ऐसे में सरकार का काला कानून लाना उसकी नीयत को दर्शाता है। नेताओं की चले तो देश में मीडिया कभी आजाद तरीके से काम न कर सके क्योंकि ये मीडिया और न्यायपालिका ही हैं जो अपनी आजादी का उपयोग करते हुए बड़े-बड़े शूरमाओं की असल पोल-पट्टी सामने लाने में सक्षम होते रहे हैं और जनता के गुस्से को सत्ताधारियों तक पहुंचाने का माध्यम बनते रहे हैं। सरकार में बैठे लोगों के मन में टीवी वालों के प्रति गुस्सा इसलिए भी है क्योंकि मुंबई आतंकी हमलों के बहाने न्यूज चैनलों ने देश की लचर सुरक्षा व्यवस्था पर तीखे अंदाज में सवाल उठाए। सरकार और उसकी एजेंसियों के नकारेपन को पूरे देश के सामने उजागर किया। इसी 'गल्ती' की सजा मीडिया को देने पर आमादा है सरकार। कैबिनेट नोट बटने का मतलब होता है मंत्रिमंडल की अगली किसी भी बैठक में इस पर मुहर लगाकर कानून बना देना। मीडिया के लिए कानून संसद में बहस के जरिए बनाए जाने की बजाय चोर दरवाजे से कानून लाने की तैयारी है। इसी का नतीजा है कि देश की विपक्षी पार्टियों के नेताओं तक को इस बात की खबर न हो सकी है कि सरकार मीडिया के साथ क्या बर्ताव करने जा रही है। अब जबिक मीडिया के लोग सभी पोलिटिकल पार्टियों के नेताओं को सरकार की अलोकतांत्रिक मंशा के बारे में बता रहे हैं तो हर नेता का यही कहना होता है कि उन्हें तो इस बारे में खबर तक नहीं है।
दोस्तों, मीडिया में होने के नाते हम-आप पर जो दायित्व है, उसका निर्वाह 15 जनवरी के दिन हम-आप जरूर करेंगे, यह उम्मीद चौथे खंभे की आजादी में विश्वास रखने वाले हर शख्स को है।
न्यूज चैनलों के संपादकों ने काले कानून के प्रति सभी राजनीतिक पार्टियों को जागरूक करने और इस कानून को न लागू होने देने के मकसद से कई बड़े नेताओं से मुलाकात की। इस मुलाकात अभियान के तहत अब तक भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी प्रकाश करात, सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, सपा नेता अमर सिंह, केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान से मिल चुके हैं। आज शाम को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात तय है। इस बीच, देश भर के मीडियाकर्मियों ने 15 जनवरी को काला दिवस मनाने की तैयारी कर ली है। दिल्ली में जंतर-मंतर पर सैकड़ों की संख्या में मीडियाकर्मी दिन में 12 बजे उपस्थित होंगे और काला कानून बनाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों में बांटे गए कैबिनेट नोट की प्रतियां जलाएंगे।
पत्रकारिता और पत्रकार
पत्रकारिता की ऊपर से दिखाई पड़ने वाली चमक-दमक के बीच अक्सर ये बात गुम सी हो जाती है कि कई लोगों के लिए पत्रकारिता एक जोखिम भरा पेशा भी होती है। ये वो लोग होते हैं जो किसी खबर के पीछे सरहदों के आरपार, और खबरों के बेहद करीब जाकर खड़े हो जाते हैं। मामला जंग का हो, आतंक का हो, किसी हादसे का हो, भूकंप का या सूनामी का हो, अक्सर अपनी सहूलियतों से बेपरवाह, अपने खतरों को पहचानते हुए भी कोई पत्रकार किसी मोर्चे पर जा पहुंचता है तो वो एक निहत्था सिपाही होता है जिसकी जान बड़ी आसानी से ली जा सकती है।
हुकूमतें सबसे पहले उस पत्रकार को निशाना बनाती है जो इस सिलसिले की पहली कड़ी होता है- वो रिपोर्टर जो कहीं जाकर, किन्हीं अंधेरों में दाखिल होकर, सूचनाओं की सेंधमारी करता है और अगले दिन के अखबार के लिए एक जरूरी मसाला जुटाता है। लेकिन उसकी ताकत यही होती है कि वो मरते-मरते भी अपना पेशा नहीं भूलता। उसके हाथ से उसकी कलम, उसका कैमरा नहीं छूटता- सच को पकड़ने की उसकी जिद नहीं खत्म होती, भले इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े।
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कुछ तो कहिये, क्यो की हम संवेदन हीन नही