Saturday, April 4, 2009

आओ खिलाएं तुम्हे पाठक दो प्याजा, पाठक मुसल्लम...


हमारे शहर लखनऊ में एक अखबार छपता है, नाम से लगता है कि , सूरज भले ढल जाए इनकी रौशनी ता- क़यामत कायम रहेगी । उजाले का तो भरोसा नहीं पाठकों पर अत्याचार ज़रूर जारी रहेगा... आये दिन नूरा कुश्ती टाइप स्टिंग आपरेशन ...


पहले एक महिला पत्रकार को सड़क पर आधी रात में टहला कर शोहदों से छेड़ छाड़ करवाई। फिर इनकी एक महिला पत्रकार हज़रतगंज स्थित काफ़ी हाउस वाले बरामदे में अधिकारियों को ठण्ड के मौसम में मानवीय मूल्यों का पाठ सिखाने के लिए, एक व्यक्ति के मरने का इंतज़ार करती रहीं और बड़े शान से अगले दिन अपनी फोटूवा छपवाई.

आदरणीय पत्रकार महोदया से कोई पूछे अगर उसे इलाज़ की ज़रुरत थी, तो आप इतनी देर तक उस व्यक्ति के मरने का इंतज़ार क्यों करती रहीं और अगर वो ठण्ड से मर चुका था तो, उसकी मौत पर तमाशा क्यों किया ?? जैसी खबर थी, उसे वैसे ही परोसा जा सकता था।

फिर एक दिन इसी अखबार के अपराध संवाद-दाता (खबरों का दान हम गरीब पाठकों को देने वाले प्रभु) क्वालिस में एके -४७ लेकर बैठे, पुलिस वालों की सतर्कता जांचने के लिए ... ज़ाहिर है सभी फ़ेल हो गए ... अमां मियां जिस शहर में हर दूसरी गाडी में बाहुबली अपने चमचों के साथ बैठकर, हथियार का प्रदर्शन करते हों, वहां किस पुलिस वाले की हिमाकत उस गाडी को रोकने की। बेहतर होता बाहुबलियों के तौर तरीके पर सवाल उठाते ... भला क्यों उठाएंगे। आखिर उनके दरबार में कोर्निश जो बजानी रहती है।

फिर एक दिन वही महिला पत्रकार जिन्होंने एक आदमी की मौत पर तमाशा बनाया , जेड गुडी के मरने पर सारे मर्द जाति को सरवाइकल कैंसर फैलाने का जिम्मेदार बता बैठीं ... इन्टरनेट से चेपा हुआ अनुवादित आर्टिकल ... अनुवाद करने में इधर का उधर हो गया । कल तो और भी अति हो गयी॥ इन्ही के स्वास्थ्य विशेषांक में एक महिला चिकितासक ने लिखा - एक से ज्यादा पुरुष साथी के साथ यौन सम्बन्ध बनाने से सरवाइकल कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। मतलब कि अगर खुदा न खास्ता किसी महिला को सरवाइकल कैंसर हो गया तो, इस "उजाले" भरे ज्ञान से उसके और उसके पति के चरित्र की मौत पहले हो जायेगी, कैंसर तो उसे अपना ग्रास बाद में बनाएगा।

पता नहीं उच्च प्रबंधन नॉएडा में कितनी ऊंचाई पर बैठा है कि उसे अपने सम्पादकीय विभाग की निरंतर होने वाली गलतियाँ नहीं नज़र आ रही हैं। ज्यादातर पत्रकारों ने अपने आप को खुदा और पाठकों को निरा मूरख समझ लिया है ... कूपन से पाठक बटोरा तो जा सकता है , लेकिन यदि अखबार की क्वालिटी वही हुई, जो कूपन के बदले मिलने वाले "उपहार रुपी रिश्वत" की होती है तो पता नहीं कितने आपकी रद्दी साढ़े तीन रुपये में खरीदेंगे और कब तक ? घबराने की ज़रुरत नहीं, अखबार के मालिकों को मंदी की मार का हवाला दिया जा सकता है।


पंजाब में आतंकवाद के दौर में यही तो हुआ था न, व्यक्तिगत दुश्मनी भी आतंकवाद के धर्मखाते में चढा दी गयी थी. वरिष्ठ कचरा परोस कर अपने अपने सिंहासन पर काबिज रहेंगे और कनिष्ठों पर गाज गिरती रहेगी...

http://vikshiptpathak.blogspot.com/

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कुछ तो कहिये, क्यो की हम संवेदन हीन नही

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